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मेरे एक सहकर्मी हैं। उनसे एक दिन मैंने मजाक में कह दिया कि आप तो आजकल बास के करीब चल रहे हैं। उन्होंने मुस्कुराकर इस बात को कबूल किया यानी उन्हें अच्छा लगा। कुछ दिनों बाद दफ्तरी काम के सिलसिले में मैंने उनसे थोड़ी कड़ाई की। वे मुझसे उलझ पड़े। उनका पहला जो रिएक्शन था, वह यह था कि आप तो मुझे बास का चमचा कहते हैं। यह मेरे खिलाफ उनका व्यक्तिगत आरोप था। निसंदेह मैं कदापि नहीं चाह सकता था कि यह आरोप आगे बढ़े। यह आरोप आगे बढ़ता तो क्या होता? निश्चित रूप से मेरी छवि यूं ही उल-जुलूल बोलने वाले की बनती। बनती कि नहीं? मैं संभला और साथी से यह कहते हुए कि अब आइंदे आपसे मेरी व्यक्तिगत बातें नहीं हो सकतीं, मैंने पूरे विवाद को विराम दिया।
मेरे एक अन्य मित्र हैं, जिन्होंने वैसे तो लव मैरिज की है, पर उन्हें सेक्स पर बातें करना अच्छा नहीं लगता। मित्रों के बीच इस पर शुरू होने वाली किसी प्रकार की बात को वे कड़ाई से रोक देते हैं। उनका मानना है कि इस मुद्दे पर सार्वजनिक रूप से बातें नहीं की जा सकतीं। उनका कहना है कि इस पर बात किसके साथ की जाय और किसके साथ नहीं की जाय, यह तय करने की जरूरत है। इतना ही नहीं, उनके साथ बातचीत में जब भी कोई (मित्र, सभी नहीं) अशुद्ध उच्चारण करता है तो वे धीरे से टोक देते हैं और शब्द का शुद्ध रूप समझा देते हैं। हर बात पर अपना विचार वे कदापि नहीं देते। पूछने पर भी विचार दें कि नहीं, इस पर विचार करते हैं। जूनियर हो या सीनियर, नमस्कार करने और हालचाल लेने में वे हमेशा आगे रहते हैं। वे कितना ठीक करते हैं, यह बहस का मुद्दा हो सकता है, पर देखा यह जा रहा है कि दिन-ब-दिन दोस्तों के सर्कल में उनका सम्मान बढ़ता जा रहा है, दफ्तर में उनकी छवि निखरती जा रही है।
तो दिनचर्या के बाद व्यक्तित्व विकास का जो सबसे अहम पहलू है, वह है – संवाद। हालांकि, व्यक्तिगत रूप से मेरा मानना है कि दो व्यक्तियों के बीच कभी संवाद स्थापित नहीं होता। जब आप किसी से बातें कर रहे होते हैं तो प्रदर्शन तो दो व्यक्तियों के बीच होने वाली बातचीत का होता है, पर दोनों व्यक्ति उस दौरान भी खुद से ही बातचीत करते होते हैं। संवाद व्यक्ति के अंदर चलता है और उसका अगला वाक्य खुद के द्वारा बोले गए पहले वाक्य को संपुष्ट करता होता है। वाक्य निर्माण की सतत प्रक्रिया व्यक्ति के अंदर चलती है। चलती है कि नहीं?
तो, जिन्हें अपने व्यक्तित्व के विकास को लेकर जोर-आजमाइश करनी है, उन्हें इस सिलसिले पर नियंत्रण रखना होगा। यानी संवाद के प्रति सतर्कता रखनी होगी। यानी जुबान पर लगाम रखनी होगी। आपके द्वारा बोला गया एक-एक वाक्य सोचा-समझा और परखा हुआ होना चाहिए। वर्ना आपको पता भी नहीं चलेगा और आप ही का बोला वाक्य दृष्टांत के रूप में आपके सामने पेश कर दिया जाएगा और आप हक्के-बक्के रह जाएंगे। संवाद नियंत्रित हो, इसके लिए पहली शर्त है दिनचर्या का ठीक होना। संवाद पर उसी का नियंत्रण हो सकता है, जो दिनचर्या में बंधा हो। यह मेरा मानना है कि जिसकी दिनचर्या निश्चित नहीं होगी, उसका संवाद कभी निर्धारित नहीं हो सकता। व्यक्तित्व विकास पर बातें अभी जारी रहेंगी। अगली पोस्ट में पढ़िए संवाद के बाद साज-सज्जा यानी ड्रेस सेंस।
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