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अमूमन दो ही प्रकार की सोचें हैं, जिनसे सांसारिक जीवन में आदमी पूरी उम्र जूझता है। जिसने इसका भेद समझ लिया और सही राह पकड़ ली, उसका जीवन रोशन हो गया, उसे मंजिले मकसूद मिल गई। जिसे सफलता की मंजिल की ओर बढ़ना है, लक्ष्य तय करना है, उसे अपनी सोचों के भेद पर न केवल विचार करना होगा, बल्कि उन्हें नियंत्रित कर उन्हें एक दिशा देनी होगी और राह तय करनी होगी। व्यक्ति की सोचें दो अवधारणाओं पर टिकी होती हैं। वे या तो सकरात्मक हो सकती हैं या नकारात्मक (हालांकि, भारतीय दर्शन एक तीसरी सोच पर भी बल देता है। यह वह स्थिति है, जहां व्यक्ति सोचों से निवृत हो जाता है, बिल्कुल सपाट मस्तिष्क, कोरे कागज की तरह। अच्छा हुआ, ठीक। बुरा हुआ, ठीक। साधना, तपस्या और अध्यात्म के शिखर पर ले जाने वाली, भाव शून्य सोचों वाली, इस अवस्था पर भी कभी विस्तार से चर्चा होगी)। व्यक्तित्व विकास के लिए यह बड़ा महत्वपूर्ण है कि सकारात्मक और नकारात्मक सोचों को ठीक से पहचाना जाए और सकारात्मक सोचों को विकसित किया जाए। लाख टके का सवाल जो उठता है, वह यह है कि सकारात्मक सोचें हैं क्या, इसे कैसे पहचानें, नकारात्मक सोचों से इसका भेद किस प्रकार तय करें?
मैंने देखा है, जब भी सकारात्मक सोचों पर किसी बुजुर्ग या विद्वान से चर्चा कीजिए, वे पानी से आधा भरे ग्लास का उदाहरण देकर गर्व से अपना सीना चौड़ा कर लेते हैं। वाह, क्या बोला मैंने। आपके सामने एक ग्लास है, जो पानी से आधा भरा हुआ है। विद्वानों का कहना है कि जो ग्लास को आधा भरा देखता है, वह सकारात्मक सोच रखता है। जो इसे आधा खाली देखता है, वह नकारात्मक सोच वाला है। मेरा मानना है कि भेद इससे बहुत स्पष्ट नहीं होता। इस भेद में कहीं न कहीं बड़ा छेद है। एक ग्लास आधा भरा है तो आधा खाली भी तो है। व्यक्ति की दृष्टि आधे भरे ग्लास के साथ उसके आधे खालीपन को भी देख पाती है तो मेरी समझ से तो यही बड़ी अच्छी बात है। किसी को आधा खाली ग्लास में सिर्फ उसका आधा भरा होना ही दिखाई दे, एक तो यह संभव नहीं, दूसरे यदि जबरदस्ती इसे संभव बनाया जाए तो मेरी समझ से यह एक बड़े तथ्य और स्थापित सच से इनकार करने वाली सोच है। है कि नहीं? सकारात्मक सोच का मतलब किसी सच को नकारना नहीं होता। एक बार इसकी आदत पड़ गई तो आगे जीवन दुरुह होती चली जाएगी और मूल को पकड़ना, समझना और उस पर अमल करना बिल्कुल असंभव हो जाएगा।
तो फिर क्या है सकारात्मक सोच, जिससे व्यक्ति का व्यक्तित्व खिल उठता है? क्या है नकारात्मक सोच, जिससे व्यक्ति की मिट्टी पलीद हो जाती है, जीवन के मायनों में वह फेल हो जाता है, घृणा का पात्र बन जाता है? और सबसे महत्वपूर्ण सवाल कि नकारात्मक सोचों से किनाराकशी कर सकारात्मक सोचों के रथ पर कोई कैसे सवार हो? है न विचार करने की बात? फिलहाल मोटे तौर पर सकारात्मक और नकारात्मक सोचों को परिभाषित करने वाली जो विषय वस्तु है, उस पर विचार कीजिए। जिन सोचों से सहानुभूति, प्यार, परोपकार, स्वीकार, दोस्ती, आत्मीयता, विश्वास, भरोसा, सहजता और ईमानदारी का प्रस्फुटन होता हो, उन्हें सकारात्मक मानिए। जिन सोचों से हिंसा, द्वेष, घृणा, इनकार, दुश्मनी, अविश्वास, बेईमानी, चिंता व तनाव बढ़ते हों, उन्हें नकारात्मक मानिए। आपके हाथों में कोई घातक हथियार है तो इसका मतलब यह नहीं कि आप उससे मार-काट मचाने का ही काम करें। आप इसका इस्तेमाल किसी की रक्षा के लिए भी कर सकते हैं। तो हाथ में हथियार हो और उससे किसी का नुकसान न हो, बल्कि सोचों में हमेशा यह गूंजे कि इसे हमेशा किसी के रक्षार्थ ही इस्तेमाल करना है तो उस सोच को सकारात्मक मानिए। आपके पड़ोसी ने कार खरीद ली और रोज आपके सामने से वह धुआं उड़ाता फुर्र होता है। इस परिघटना से आप कार खरीदने का मन बना लें और उद्यम कर, पैसे इकट्ठा कर कार खरीद लें, तब तो यह सकारात्मक सोच है। पर, आप कार नहीं खरीद पाने की सूरत में पड़ोसी की कार को ऐन-केन-प्रकारेण क्षतिग्रस्त कर दें या करने की सोचें तो इस सोच को नकारात्मक मानिए। कुछ सूत्र हैं, कुछ उदाहरण हैं, जिनसे बातें और स्पष्ट होंगी। व्यक्तित्व विकास के इस महत्वपूर्ण पहलू पर अभी चर्चा जारी रहेगी। अगली पोस्ट में पढ़िए – दिल दरिया, आंखों में आंसू, दिमाग दरवाजा।
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