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तू मेरा यार, मैं तेरा यार

गोल से पहले
गोल से पहले
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बातों की शुरुआत एक बहुत ही गरीब व्यक्ति के जीवन की गाथा से करना चाहूंगा। वे मेरे गांव में दफादार थे। तब चौकीदारों-दफादारों को सौ रुपये से भी कम तनख्वाह मिला करती थी। जैसा कि गांवों में अमूमन शुरुआती उम्र में ही शादी हो जाती है, सो उनकी भी हो गई थी और सही मायने में वे जब तक होश संभालते, तब तक चार बच्चों की परवरिश का बोझ उनके कंधे पर आ चुका था। उनके घर में खाने-पीने तक का संकट रहा करता था। तनख्वाह से जिंदगी क्या चलती, साल-साल भर पर तो भुगतान होता था। बंटाई पर खेती से जीवन चलता था। मिलनसार थे। हफ्ते में एक बार उन्हें थाने जाना होता था। थाने यानी उस इलाके का बाजार। उनकी आदत थी, जिस रोज वे थाने जाते थे, उस रोज अपनी जान-पहचान वालों के घर जाकर यह पूछ लेते थे कि कुछ बाजार से मंगाना हो तो उनसे मंगा ले। लोग पैसे देते थे, वे सामान लाकर उनके घरों तक पहुंचा देते थे। पूरा गांव उनका मित्र था, वे उनके मित्र थे। नाते-रिश्तेदारों तक में यह प्रसिद्ध था कि कोई काम हो तो दफादार साहब को कह दिया जाय। वे उनका काम अपने काम की तरह करते। और एक दिन उन्हें अपनी लड़की की शादी करने का वक्त आया। एक लड़का उन्हें पसंद आया, पर वहां जितना दहेज मांगा जा रहा था, उतना देने की उनकी कतई हैसियत नहीं थी। स्कूटर की डिमांड भी रखी गई थी। लोग उनके दरवाजे पर आ-जा रहे थे और जानकारी ले-दे रहे थे। दफादार साहब के मुंह से उनकी कोई इच्छा पहली बार सुनी जा रही थी। उनकी इच्छा थी कि उसी लड़के से उनकी लड़की की शादी हो जाय। और आप भरोसा करें, उसी लड़के से उनकी लड़की की शादी हुई और धूमधाम से हुई। हुआ सिर्फ इतना कि जिंदगी भर उन्होंने मुफ्त में जिनकी सेवाएं की थीं, उन्होंने मिल-जुलकर उनकी सेवा कर दी। दफादार साहब आज इस दुनिया में नहीं हैं, पर उनके अन्य तीनों लड़के ठीक-ठाक जिंदगी की गाड़ी खींच रहे हैं। सभी के पास मोटरसाइकिल है, घर में लैंडलाइन फोन तो लग ही गया हैं, परिवार के सदस्यों के हाथों में मोबाइल तक चमक रहे हैं। लाइक फादर, लाइक सन। बच्चे भी दुश्मनी साधने में भरोसा नहीं करते। एक दोस्त के रूप में उन पर कोई भरोसा कर सकता है।
इस पूरी कथा में दफादार साहब के व्यक्तित्व को देखने-समझने की जरूरत है। व्यक्तित्व विकास के लिए यह बड़े मतलब का मसला है, जिस पर एक बार अमल करने की आदत पड़ गई तो समझिए जिंदगी तर गई। इसके तहत करना सिर्फ इतना है कि आदमी कुछ भी करे, किसी भी उम्र या पेशे में रहे, सिर्फ दोस्त बनाता चले, सच्चा दोस्त। अपनी कार्यशैली का कुछ हिस्सा रोजाना मित्रता कायम करने के लिए दान करे, झोंके। आज जिसे मजबूत माना जाता है, वह वही तो है जिसके दोस्तों की फेहरिश्त लंबी है, जिसके शुभेच्छुओं की संख्या अधिक है। कोई कार वाला आपका दोस्त है, अब आपके पास कार न होने का कोई गम नहीं। कोई होटल वाला आपका दोस्त है, आपके ठहरने-भोजन की चिंता खत्म। कोई अफसर, कोई नेता, कोई जज, कोई पत्रकार…. जिसके दोस्त हों, उनके सामने बहुत सारी परेशानियां सिर ही नहीं उठातीं। आम तौर पर होता यह है कि आदमी सिर्फ पैसे कमाने की धुन में लगा रहता है और समाज, परिवार, यहां तक कि खुद से भी कटता चला जाता है। न तो किसी का सच्चा दोस्त बन पाता है, न किसी को बना पाता है। कभी सहपाठियों को तो कभी सहकर्मियों को दोस्त समझ लेता है और लगातार खता खाता रहता है। खता खाने के बाद फिर उन्हीं को गद्दार ठहराता, खिलाफ में भुनभुनाता, हरकत करता उलझा रहता है। दोस्ती टूटने का गम भी मनाता है, गाता चलता है- दोस्त-दोस्त ना रहा, प्यार-प्यार ना रहा। विचार कीजिए, जब आप किसी के नहीं तो आपका कौन? तो मेरी मानिए, यह गाना छोड़िए कि दोस्त-दोस्त ना रहा….., अब तो गाइए, मैं तेरा यार, तू मेरा यार, यही है सफल जिंदगी का सार, यही है, यही है, यही है। व्यक्तित्व विकास पर अभी चर्चा जारी रहेगी। धन्यवाद।

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