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ट्रबल शूटर बनें, किएटर नहीं

गोल से पहले
गोल से पहले
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बहुत दिनों, लगभग छह-सात साल पहले का किस्सा है। तब, मैं और मेरे जैसे कई साथी मुफलिस ही रहा करते थे। अलग-अलग सिंगल कमरा किराये पर लेकर। सुबह जल्दी नींद खुल गई तो इकट्ठा चाय पीने के खयाल से मैं बगल में ही रहने वाले एक साथी के कमरे पर चला गया। उन्होंने गैस स्टोव पर चाय बनाई और पिलाई। तभी, बाहर गली से रेहड़ी वाले ने ताजा सब्जी की हांक लगाई। चाय पिलाने वाले साथी ने कहा, आइए ताजा सब्जियां खरीद लूं। हम दोनों बाहर निकले और रेहड़ी से सब्जियां पसंद करने लगे। इसी बीच साथी हड़बड़ी में आ गए। उन्होंने रेहड़ी वाले से कहा, छोड़ो यार, अभी रहने दो, बाद में ले लूंगा, अभी जाओ। और यह कहते हुए वे एकाएक मुड़े और अंदर भागे। मुझे भी हांक लगाते गए कि आइए, भीतर आइए, जल्दी। मैं अकबकाया, हकबकाया, उनकी हरकत बिल्कुल समझ में नहीं आई। मैंने पूछा भी कि आखिर हुआ क्या? उन्होंने कहा, अरे छोड़िए, भीतर आइए। सब्जी वाले से उन्होंने कहा, जाते क्यों नहीं हो भई, चलो निकलो, जल्दी।

मेरे भीतर पहुंचते उन्होंने कहा, गली के मुहाने पर आपने नहीं देखा क्या? मैंने पूछा – क्या? बोले, अरे भाई शर्माजी (काल्पनिक नाम)। शर्माजी हमलोगों के सहकर्मी थे। मुफलिस ही रहते थे इसी गली में और संभवतः किसी काम से कहीं जा रहे थे। मैंने पूछा, तो क्या हुआ? उन्होंने कहा, आप नहीं जानते कि शर्माजी कितने घिस्सू आदमी है। अभी वे सब्जी खरीदने लगते और पैसे मुझे चुकाने पड़ते। मैंने पूछा, क्यों, पैसे आप क्यों चुकाते? बोले- मैं नहीं चुकाता तो वे सब्जी वाले को पैसे देने के लिए मुझी से उधार मांगने लगते। एक बार पैसा दे देता तो फिर उनसे वसूलना मुश्किल। उनके पास पैसे कभी एक्सट्रा होते ही नहीं हैं कि आप अपना बकाया वसूल सकें।

तो यह था, सब्जी की खरीदारी छोड़कर उनके एकाएक भीतर भाग चलने का राज। यह शर्माजी के व्यक्तित्व का दोष था। पता नहीं, तब शर्माजी उस साथी से सब्जियां खरीदवाते या नहीं, पैसे उधार लेते या नहीं, पर उनकी छवि तो उनके अपनों के बीच कुछ ऐसी ही थी। इस तरह के व्यक्ति हर किसी के आसपास रहते हैं। उनकी उपस्थिति ही दूसरों के लिए समस्या बन जाती है। आम तौर पर लोग ऐसी शख्सीयत से दूर भागने लगते हैं। उन्हें देखकर ही लोग भविष्यवाणी करने लगते हैं कि भई, अब वे आ रहे हैं, तो कोई न कोई उनकी समस्या होगी ही, समय जाया करेंगे और तरद्दुद में डालेंगे, उनसे बचो।

अब एक दूसरे साथी का जिक्र करूं। बड़ी से बड़ी समस्या उनके सामने ले जाइए, चुटकी बजाते हल कर देते हैं। किसी साथी को छुट्टी में घर जाना हुआ तो वे खोदकर पूछते हैं और अपने पास से कुछ पैसे उसकी जेब में डाल देते हैं। अपने पास पैसे न हुए तो उधार लेकर भी इंतजाम करते हैं, यह हिदायत देते हुए कि आप घर जा रहे हैं, पैसों की वहां जरूरत हो सकती है। इसे रखिए, काम होगा तो खर्च कीजिएगा, वर्ना वापस भी लाकर दे सकते हैं। लोग उनके व्यवहार से अभिभूत रहते हैं। उनका पैसा कभी किसी के पास फंसा, यह तो नहीं जानता, पर उन्हें देखकर ही लोग उनके स्वागत के लिए उनके सामने बिछ से जाते हैं। अपनी समस्या उनके पास भले लाख रहे, पर उनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं देख सकता, यहां तक कि उनके खास दोस्तों को भी काफी बाद में, जब उनकी समस्याएं हल हो जाती हैं तब उसके बारे में पता चल पाता है।

तो व्यक्तित्व विकास के लिए यह बड़ा प्रभावी सूत्र है, जो हर किसी की साफ समझ में होना चाहिए। आप समस्याओं का समाधान बनें, न कि समस्याएं क्रिएट करते चलें। नौकरी में हों, व्यवसाय में हों, किसानी में हों, आपके लिए जरूरी है कि आप समस्याओं के निदान करने वाले के रूप में पहचाने जाएं, समस्याएं उत्पन्न करने और उसे बढ़ाते जाने के लिए नहीं। एक बार इस पर विचार कर अमल करना शुरू करें, देखिए कैसे आपके जीवन में चमत्कार होना शुरू होता है। मैनेजमेंट गुरू तो आजकल कहने भी लगे हैं कि यदि आप समस्या के समाधान नहीं हैं तो मान लीजिए आप खुद एक समस्या हैं।

व्यक्तित्व विकास पर अभी चर्चा जारी रहेगी। अगली पोस्ट में पढ़िए – काम मेरा, नाम तेरा, वाह भई वाह।

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