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जबड़ा तोड़ देने की चाहत और हाथ का मिलाना

गोल से पहले
गोल से पहले
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आपने देखा होगा कि अखाड़े में एक दूसरे का जबड़ा तोड़ कर रख देने की चाहत के साथ उतरने वाले पहलवान भी खेल शुरू होने से पहले एक दूसरे से हाथ मिलाने के बाद ही अपने दांव आजमाते हैं। इतना ही नहीं, पूरे खेल में अपनी-अपनी जीत के लिए मशक्कत करने वाले ये खिलाड़ी तमाशा खत्म होने के बाद भी प्रतिद्वंद्वी से हाथ मिलाते हैं और तभी समापन होता है। यह आम मानव को सबक लेने वाली प्रक्रिया है। जिसके जबड़े तोड़ने हैं, पटकी देनी है, चित करना है, उससे हाथ मिलाया जा रहा है। क्यों? क्योंकि दोनों खिलाड़ियों को पता है कि वे एक समय अंतराल में अपना फन, अपना जौहर दिखाने के लिए रिंग में हैं और साथी-प्रतिद्वंद्वी से उनकी प्रतिद्वंद्विता है, प्रतिस्पर्धा है, दुश्मनी नहीं। उसे पता है कि जिस खेल का वह खिलाड़ी है, उसी खेल को अगला भी खेलता है। तो साथी से अखाड़े में हाथ मिलाना कितना प्रोफेशनल है? हाथ मिलाने से दोनों के बीच कोई ऐसी दोस्ती नहीं हो गई कि वे एक दूसरे पर वार न करें, एक दूसरे के खिलाफ दांव न आजमाएं। या फिर खेल में पराजित हो जाने के बाद हारा खिलाड़ी उसी शानो-शौकत से अपनी हार स्वीकार करता है और मुस्कुराता विजयी प्रतिद्वंद्वी से हाथ मिलता है और पेवेलियन लौट जाता है फिर से एक नई कुश्ती की तैयारी और मशक्कत के लिए।

पर, आम जीवन में आम तौर पर क्या होता है? आपकी फील्ड का कोई साथी थोड़ा अच्छा काम कर गया, थोड़ी बड़ाई लूट ली, थोड़ा किसी का (किसी का क्या बास का) चहेता बन गया और बन गया आपकी आंखों की किरकिरी। किरकिरी ही नहीं, आपने तो दुश्मनी ठान ली और लगे उसको ऐन-केन-प्रकारेण नुकसान की जुगत करने। ऐसा करने में आपके सामने खतरे दो तरह के पैदा हो गए। एक तो यह कि आपने उस अच्छे-भले साथी को अपना दुश्मन बना लिया, दूसरे दुश्मनी साधने के चक्कर में आप अपना काम भूल गए। आप पर कुंठित, ईर्ष्यालू होने का विशेषण लगा, इसे बोनस समझिए।

मुझे याद है, बचपन में परीक्षाओं के दौरान भोर में (सुबह के तीन-चार बजे से) हमें पढ़ाई के लिए जगा दिया जाता था। हम लालटेन जलाकर पढ़ने लगते थे। मेरी क्लास का कोई दूसरा साथी जो बगल के घर में या दूसरे दरवाजे पर सोया करता था, झांक कर देख लेता था कि मैं पढ़ रहा था या नहीं। मुझे देखकर वह भी पढ़ने लगता था। लेकिन, अगले रोज जब भी पूछो तो कभी नहीं बताता था कि वह भी भोर में पढ़ता था। एक दिन लुकाछिपी पकड़ी गई। जब वह लालटेन जलाकर पढ़ रहा था तो मैं उसकी खिड़की पर जाकर भूत की तरह खड़ा हो गया। उसने पहले तो हक्का-बक्का होकर मुझे देखा, पर थोड़ी ही देर में दोनों के मुंह से बेसाख्ता हंसी निकली और हम हंसते चले गए। यह कैसी प्रतिद्वंद्विता थी। वक्त की मार में हम शायद उस मौलिकता को भूल चुके हैं! और आप भरोसा करें, जब दोनों को यह पता चला कि दोनों एक ही मिजाज के पढ़ाकू हैं तो गुजरते वक्त के साथ हम गाढ़े मित्र भी बन गए। वैचारिक स्तर पर समानता शायद अंदरखाते व्यक्ति को दोस्त भी बना देती है।

तो क्या इस पर विचार करने की जरूरत नहीं है कि व्यक्तित्व विकास के लिए सतर्क व्यक्ति को हमेशा प्रतिस्पर्धा के लिए तो तैयार रहना चाहिए, पर प्रतिस्पर्धा को कभी दुश्मनी नहीं समझना चाहिए? प्रतिस्पर्धा को दुश्मनी समझने की भूल यदि हो गई तो समझिए यह आने वाले दिनों में आपकी सभी सकारात्मक क्रियाकलापों को ध्वस्त कर देगी। अपने स्वभाव को टटोलिए औऱ यदि इस बीमारी का थोड़ा भी लक्षण दिखायी दे तो दूर निकाल फेंकिए। यह आपको औऱ आपके व्यक्तित्व को बचाने के लिए नितांत आवश्यक है। व्यक्तित्व विकास पर चर्चा अभी जारी रहेगी। अगली पोस्ट में पढ़िए – ना कहना भी बहुत जरूरी।

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