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ना कहना भी बहुत जरूरी

गोल से पहले
गोल से पहले
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यह जान लीजिए, आदमी ना कहने में कम, हां कहने में ज्यादा फंसता है। हां कहना आसान तो लगता है, पर आपके हां कहते ही शुरू हो जाती है इस हां को पूरा करने की मशक्कत, जोर आजमाइश। इसी के साथ शुरू हो जाती है आपसे अपेक्षाएं और उसी पर निर्भर हो जाती हैं आपकी सफलताएं। असफलता आपकी स्वीकृति पर संदेह पैदा करती है, सवालिया निशान खड़ा करती है। इसलिए किसी काम के लिए, किसी मौके के लिए यदि आपको हां कहना है तो आपका चूजी होना नितांत जरूरी है। बिना चूजी हुए आपने हां की तो समझिए आप फंसे।

आपने कुछ वैसे व्यक्तियों को जरूर देखा होगा जो कभी ना नहीं कहते। कभी आदतन तो कभी मजबूरन। हो सकता है कि उन्हें इसके लिए सोसाइटी ने मान्यता भी दे रखी हो, लोगों में मान भी हो, पर कभी आप उनसे बात कर देखें तो पता चलेगा कि हां कहने की आदत से वे कितने परेशान होते हैं। खुद तो परेशान होते ही हैं, दूसरे को भी परेशान करते हैं। आखिर में जो परिणाम आता है, वह उनके पूरे व्यक्तित्व को प्रभावित कर जाता है, सवाल उठा जाता है, एक मायने में मानव के लिए स्थापित सामान्य व्यक्तित्व के मानकों को भी ध्वस्त कर जाता है। उनकी हां कहने से उनकी छवि में कितना निखार आ पाता है, इस बात को तो छोड़ दीजिए, जब सभी हां को पूरा करने में वे सफल नहीं हो पाते तो धीरे-धीरे वे हाशिये पर चले जाते हैं, लोग भी उनसे किनारकशी करने लग जाते हैं। उनके बारे में एक आम संवाद जो पूरी फिजा में तैरने लगता है, वह यह है कि भई, वे तो किसी काम के लिए ना कहते ही नहीं, भले काम हो ना हो। उनके चक्कर में फंसे हो तो बचना।

मेरी समझ से छवि ऐसी होनी चाहिए कि यदि आपने हां कह दिया तो इसका मतलब हां ही हो। आपने हां कह दिया तो आगे यह लगना चाहिए कि आप इसे पूरा करने के लिए कोई प्रयास उठा नहीं रखेंगे। और यह छवि हर काम, हर चीज के लिए हां कहने से नहीं बनती। यह छवि तभी बनती है, जब आपको ना कहने की कला आती हो। जब तक आप हां कहने के लिए सेलेक्टिव नहीं होंगे, तब तक आपकी हां का कोई मतलब नहीं होगा। यह खयाल करने की बात है कि आपकी हां का पावर ना कहने से ही मजबूत होता है।

मेरे एक संकोची मित्र है। कभी किसी काम के लिए ना नहीं कहते और हां कहने के बाद बातों को याद भी नहीं रख पाते। लोगों को याद दिलाना पड़ता है कि उन्होंने फलां काम के लिए कभी हां कहा था। दोष उनका भी नहीं है। आखिर वे करें तो क्या करें? जब ढेर सारे काम के लिए उन्होंने हां कह रखी है, तो आखिर वे किस-किस काम को करने की जहमत उठाएं। आखिर आदमी के काम करने की भी अपनी सीमा है। सीमा से बाहर जाकर काम किया तो जा सकता है, लेकिन उसकी भी एक सीमा होती है। वे हमेशा परेशान तो दिखते हैं, पर कभी किसी को संतुष्ट नहीं कर पाते। दूसरों को तो छोड़िए, खुद को भी नहीं कर पाते। एक दिन बड़ी शिद्दत से वे कह रहे थे-अब किसी काम के लिए हां कहने से पहले सोचूंगा, तय करूंगा, खुद को नापूंगा और लगा कि कर पाऊंगा तभी हां कहूंगा। उनकी बात मैं भी कहना चाहूंगा। यदि आप अपने व्यक्तित्व में डायनमिक डेवलपमेंट चाहते हैं तो जरा हां-ना में फर्क कीजिए और कभी-कभी ना भी जरूर कीजिए। व्यक्तित्व विकास पर अभी चर्चा जारी रहेगी। अगली पोस्ट में पढ़िए – दिल की गली से बचके गुजरना।

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