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जोश का आना बुरा नहीं है, बशर्ते यह होश के साथ आए। जोश का आना बुरा क्यों नहीं है? इसलिए कि बिना जोश के कहीं कोई काम होता है? सफलता की मंजिलें तय करने के लिए व्यक्ति में जोश तो होना ही चाहिए। मगर, व्यक्ति में अपने जोश के प्रति पूरा-पूरा होश रहना बहुत जरूरी है। यह जान लीजिए, बिना होश का जोश विध्वंसक होता है, विनाशक होता है।
एक मेरे सहकर्मी हैं। थोड़े कनिष्ठ पद पर। बताते हैं कि बीपी (ब्लड प्रेशर) के पेंशेंट बन चुके हैं। थोड़ी-थोड़ी बात पर उत्तेजना, भावातिरेक और जोश दिखाने की आदत से उन्हें लिप्त कहा जा सकता है। दूसरी नौकरी पकड़ने के बाद जब पहली नौकरी छोड़ने जाते हैं तो पूरी तरह जोश में होते हैं, पर उसके परिणामों का होश वे बिल्कुल नहीं रख पाते। करते क्या हैं?
आम तौर पर लोग नौकरी बेहतरी के लिए तो बदलते हैं, पर पुराने संस्थान में परेशानी का बढ़ना और अच्छे माहौल का नहीं रहना भी मुख्य वजहें होती हैं। अमूमन लोगों के पास संस्था के प्रति कोई न कोई खुन्नस होती ही है। तो इसका क्या मतलब कि जब आप दूसरी नौकरी तलाश लें तो पहली वाली संस्था से बिल्कुल बिगाड़ कर लें? जी तो चाहता है, उल-जुलूल बकने का, कुछ मिजाज के लायक जवाब देकर अलविदा करने का, पर यह जोश होता है और यहीं होश की जरूरत होती है।
क्या है होश? होश की बात यह है कि जिस संस्था में आप शुरुआत करने जा रहे हैं, वहां क्या गारंटी है कि आपकी स्थिति हमेशा ठीक ही रहेगी? क्या जरूरी है कि वहां आपका कभी बिगाड़ नहीं होगा? और जब होगा तब क्या करेंगे? फिर से नौकरी की तलाश करनी होगी, यही न? तो ठीक है कि आप इससे पहले जिस संस्था को छोड़ कर आए हैं, वहां नई नौकरी मांगने नहीं जाएंगे, पर जिस तीसरी जगह नौकरी मांगने जाएंगे वहां कहीं वही व्यक्ति हुआ, जिसे आप इस्तीफा फेंक कर आए थे तो सोचिए क्या होगा? सहकर्मी के साथ यही हो रहा है। तो कभी बेबजह का, बिना होश के दिखाया गया आपका जोश, भारी पड़ जाएगा। है न?
एक लड़का है। जोशीला, गर्म मिजाज का। कभी भी किसी से भिड़ जाने की आदत है। इंटर करने के बाद उसे ग्रेजुएशन में नाम लिखाना था। अभिभावक उसे जरूरत के मुताबिक पैसे दे रहे थे, पर उसकी डिमांड थोड़ी ज्यादा थी। लड़के की मां ने कहा कि अभी इस पैसे से जरूरी काम करो, नाम लिखवाओ, कमरे ठीक करो, फिर और पैसे दिए जाएंगे। बच्चा जोश में आ गया। उसने रुपये फाड़ डाले और रुठकर घर बैठ गया। बाद में तो वह जिद पर आ गया। गया ही नहीं कालेज करने। नतीजा, वह इंटर पास ही रह गया। आज जब उसे नौकरी के लिए ग्रेजुएशन की डिग्री की अहमियत समझ में आई तो काफी वक्त बीत चुका है। लड़के के पास हाथ मलने के सिवाय कोई चारा नहीं रह गया है। अपने जोश को वह हजार बार लानतें भेजता रहता है।
अब होश के साथ जोश का एक उदाहरण। वीपी सिंह के मंडल कमीशन का जमाना था। गांवों में अगड़ी और पिछड़ी जाति के लोग बेबजह एक दूसरे के खून के प्यासे हो रहे थे। मजदूर नहीं मिलने के कारण कुछ गांवों में अगड़ी जाति की जमीनों में फसलें नहीं बोई जा सकीं। कम से कम दो गांवों का नाम यहां लिया जा सकता है। ये हैं वैशाली जिले के जलालपुर और चिंतावनपुर। इन गांवों में अगड़ी जाति के युवकों ने, जो कभी शाम होते ही पीने-पिलाने और बाजार में दंगा-फसाद के लिए कुख्यात थे, ठान ली कि वे खेती करेंगे।
एक लड़का उठा और ट्रैक्टर से पूरे गांव के खेतों को जोतता चला गया। दूसरा युवक उठा और बीज इकट्ठा कर समवेत रूप से उसे एक-एक कर खेतों में बोता चला गया। इनके जोश का नतीजा है कि ये दोनों गांव अब खेती के लिए किसी पर निर्भर नहीं हैं। आजकल यहां केले और आम की खेती लहलहा रही है। हालांकि, बाद में पिछड़ी जाति के लोगों को भी चेतना आई और वे उनके साथ हो गए हैं।
तो व्यक्तित्व विकास के लिए यह बहुत जरूरी है कि व्यक्ति जोश तो दिखाए, पर होश के साथ। होश में जोश दिखाने वाला व्यक्ति ही समाज में प्रतिष्ठा भी पाता है।
फिलहाल इतना ही। व्यक्तित्व विकास पर अभी चर्चा जारी रहेगी। अगली पोस्ट में पढिए – अंतर को पकड़िए, खिल उठेगी जिंदगी।
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