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अंतर को पकड़िए, खिल उठेगी जिंदगी

गोल से पहले
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जैसे नुक्ते के हेरफेर से खुदा जुदा हो जाते हैं, रेफ के हेरफेर से शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं, ठीक वैसे ही आचरण औऱ चरित्र के अंतर को पकड़ने से जिंदगी बदल जाती है, जीवन खिल उठता है। आप मानव हैं तो आपका चरित्र मानवीय होना चाहिए। मगर, मानवीय चरित्र के व्यक्ति का भी आचरण कुत्तों जैसा हो सकता है, बंदरों जैसा हो सकता है, सियार जैसा हो सकता है, भैंस जैसा हो सकता है, शेर जैसा हो सकता है। थोड़ी-थोड़ी बातों का अंतर होता है। इसकी ठीक से निगरानी कर और उसमें सुधार लाकर व्यक्तित्व को विकसित किया जा सकता है।

दो-तीन चीजें हैं, जिन्हें साफ-साफ समझ लेना चाहिए। पहला कि भले आपका आज, आपका वर्तमान कल यानी भूतकाल की अवधारणाओं पर टिका हो, पर आने वाला कल यानी भविष्य आज की अवधारणा पर टिका रहे, इसे कतई जरूरी मत मानिए। ख्याल रहे, यहां बात चरित्र और आचरण के संदर्भ में हो रही है। आज आपको किसी ने गाली दी, आपने उसे पीट दिया। कल भी आपको कोई गाली दे रहा है औऱ आप उसे पीट रहे हैं। क्या यह मानवीय और सुधार का आचरण है? और यदि इसे आप मानवीय चरित्र समझ रहे हैं तो बड़ी भूल कर रहे हैं। इतना सिस्टमेटिक, इतना मैकेनिकल भी होने की जरूरत मैं नहीं समझता। बीते कल में जो हुआ, वह आने वाले कल में संशोधित हो जाना चाहिए। कुछ ऐसा हो कि कल आपको किसी ने गाली दी और आपने उसे पीट दिया हो, मगर अब जो कल आ रहा है, उसमें कोई आपको गाली दे रहा है और आप उसे गले लगा रहे हैं तो मानिए आपका आचरण बदला। आपने कल और आज का अतर पकड़ा।

दूसरी बात है आदत। क्षुद्र आदतों को, जो आपके व्यवहार में समाहित हो चुकी है, आपने अपना चरित्र मान बैठा है। इससे परेशानी बहुत होती है, दिक्कतें बहुत होती हैं। आपने शुरुआती जीवन में कुछ गलतियां कीं, कुछ आदतों पर अमल किया और उसे ढोए जा रहे हैं, दोहराए जा रहे हैं, उसी पर अमल किए जा रहे हैं, उसी के किस्से सुनाए जा रहे हैं। आपके ध्यान में भी नहीं है कि यह आपके बचपन, किशोरावस्था की बातें थीं, अब आप प्रौढ़ हो चुके हैं और सामने वाला जो अभी किशोरावस्था में है औऱ जो आपकी इन बीमारियों और किस्सों से पूरी तरह ग्रसित है, आपकी ओर उससे मुक्ति पाने का मार्ग जानने के लिए देख रहा है। इस उम्र के फर्क को पकड़कर आदतें बदलने की जरूरत है, व्यक्तित्व विकास के लिए यह जरूरी है।

तीसरी बात है सीधा संवाद। दूसरे अर्थों में चुगलखोरी बिल्कुल नहीं। आचरण के इस विषय-वस्तु को आप चरित्र माने बैठे हैं तो आपका व्यक्तित्व बिल्कुल प्रभावी नहीं हो सकता, इसकी गारंटी है। एक आदमी से आपकी शिकायत हुई और लगे लाबिंग करने। शिकायत करने वाले पर इसका बहुत बाद में फर्क पड़ेगा, आप उससे पहले फरेबी मान लिए जाएंगे, इतना याद रखिए। अभी कुछ दिनों पहले की बात है, अखबार के दफ्तर में एक डेस्क पर चपरासी ने अखबार नहीं दिया। वहां अखबार छपकर आने के साथ ही सभी डेस्कों पर एक-एक कापी देने की परंपरा है। डेस्क के साथी ने जब चपरासी से पूछा तो उसका कहना था कि ऐसा मैनेजर साहब का आदेश है। अब सन्नाटा। सभी डेस्कों को अखबार मिला और इसी डेस्क को इससे वंचित किया गया तो इसका मतलब डेस्क की महत्ता पर सवाल।

साथी के मन में हलचल मच गई। कहने लगे कि यह तो बड़ा मुद्दा है, मैं ऊपर तक उठाऊंगा, मालिकानों तक मेल करूंगा। मैंने कहा, ठीक है, सब कुछ कीजिएगा, पर आज मत कीजिए, और आज ही करना है तो पहले मैनेजर साहब से बात कीजिए। उनका कहना था कि क्यों, अब मैनेजर साहब से बात करने की क्या जरूरत है, उन्होंने तो रोक ही दिया है, चपरासी गलत थोड़े बोल रहा है। फिर भी मेरा कहना था-आज भर रुकिए। दरअसल रात हो गई थी और मैनेजर साहब घर चले गए थे। मैं उन्हें घर पर डिस्टर्ब नहीं करना चाह रहा था। मैं भी दफ्तर से निकल गया।

रात के ग्यारह बज रहे थे। रास्ते में मुझे लगा कि साथी कहीं मेल चलाकर मामला बिगाड़ न लें, मैंने रुककर अपने मोबाइल से मैनेजर साहब को कॉल लगा दी। नमस्कार-प्रणाम के बाद उनके सामने मुद्दे की बातें रखीं। उन्होंने तत्काल कहा, ऐसा तो चपरासी को नहीं कहा गया है। उन्होंने बताया कि चपरासी ने गलत समझा है। उससे सिर्फ इतना कहा गया है कि जिस डेस्क का काम जब तक चलता है औऱ वहां जब तक साथियों की उपस्थिति रहती है, उस डेस्क पर उसी वक्त तक का अखबार दिया जाए। उन्होंने कहा कि साथी को समझाइए, यदि वे शुरू से आखिर तक अपनी डेस्क चलाते हों तो उन्हें शुरू से आखिर तक अखबार दिया जाएगा। यानी मैनेजर साहब से बातें करने के बाद मामला खत्म। मैंने साथी को फोन कर बताया तो सन्नाटा भी खत्म। कल्पना कीजिए, यह सीधा संवाद नहीं होता तो साथी की कितनी भद्द पिटती? व्यक्तित्व विकास पर अभी चर्चा जारी रहेगी। अगली पोस्ट में पढ़िए – सामने वाला पगला, चमचागीरी न कीजिए।

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