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सामने वाला पगला, चमचागीरी न कीजिए

गोल से पहले
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हालांकि, यह टिप्पणी बहस को आमंत्रित कर सकती है, पर व्यवहार में यह काफी सही उतरती है, व्यक्तित्व विकास के लिए इस टिप्स को समझ लेना जरूरी हो सकता है। अधिकतर लोग जो ड्राइविंग से वाकिफ होंगे, वे इस बात को बखूबी समझ सकते हैं।

जब आप सड़क पर चलते हैं तो आपने देखा होगा कि आप भले ठीक चल रहे हों, अपने रास्ते पर जा रहे हों, पर यदि सामने वाला ठीक से नहीं चल रहा तो आप दुर्घटना के शिकार हो जाते हैं। अधिकतर दुर्घटनाएं किसी एक ड्राइवर की गलत ड्राइविंग की वजह से ही होती हैं। दोतरफा गलती कम ही दिखती है। तो जब आप ड्राइविंग कर रहे हों तो सामने वाले को बिल्कुल पगला मानकर ही चलना होगा और बचना होगा। आप मान ही लीजिए कि सामने वाला कुछ भी कर सकता है, किधर भी जा सकता है। और एक बार जब आप ऐसा मानकर ड्राइविंग करेंगे तो आपके साथ दुर्घटना की संभावना कम हो जाती है। है कि नहीं? तो ड्राइविंग की इस सजगता को व्यक्तित्व विकास के लिए सक्रिय व्यक्ति को पकड़ने की जरूरत है, समझने की जरूरत है। एक बार यह सूत्र पकड़ में आ गया तो समझिए, बड़ी चीज हासिल हो गई।

दरअसल, दुनियावी काम और दफ्तरी मुकाम के बीच आदमी बिल्कुल भीड़ का हिस्सा बन जाता है और सामने वाले को ही अपना सब कुछ, सर्वस्व मान बैठता है। हर जगह दीदें फाड़ता रहता है, दुखड़ा रोते चलता है। यह व्यक्तित्व विकास के लिए खतरनाक स्थिति है। खतरा यह है कि यह बिल्कुल एकतरफा होता है। होता यह है कि जिसे आप सर्वस्व मान बैठते हैं, उसे आप खुद को पूरी तरह इस्तेमाल करने की छूट दे देते हैं। सामने वाले को बिना मांगे सुपरमेसी मिल गई। और आपने देखा होगा कि जब बिना परिश्रम किसी को कुछ मिल गया तो उसका बेजा इस्तेमाल अवश्वसंभावी हो जाता है। सो, आपका बेजा इस्तेमाल भी निश्चित हो जाता है। और एक दिन जब आपके ज्ञानचक्षु खुलते हैं, आपका अहं, आपका जमीर आपको ठोकर मारता है और उसके इस्तेमाल पर आपकी नजरें जाती हैं तो आपकी पूरी प्रवृति विद्रोही हो जाती है, आप गद्दार तक कहे जाने लगते हैं। सारा डिवोशन (त्याग) खत्म।

यह एक दिन में नहीं होता। गौर से देखा जाए तो व्यक्ति इसके लिए खुद ही जिम्मेवार होता है। सजग और सचेत अवस्था का आचरण, जिसमें सामने वाले को बिल्कुल पगला मानते हुए आपने काम किया यानी बचकर काम किया तो निश्चित मानिए, आपका व्यक्तित्व खिला-खिला रहेगा। खिला रहेगा कि नहीं?

चमचों को तो आपने देखा होगा। मौका-बे-मौका थोड़ी-बहुत तो चमचागीरी हर किसी ने की होती है। आई रिपीट, पर, चमचों को तो आपने देखा ही होगा। चमचों के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह होती है कि सारी दुनिया तो उसे चमचा समझती ही है, जिसकी वह चमचागीरी करता है, वह भी उसे चमचा ही समझता है। और चमचे से हमेशा, मैं फिर कहता हूं, हमेशा, चमचागीरी की ही उम्मीद की जाती है। वह चाहे जितना ऊपर उठ जाए, पर चमचागीरी से आजीवन ऊपर नहीं उठ पाता। स्थितियां ऐसी हो जाती हैं कि चमचागीरी से ऊपर उठना उसके लिए संभव नहीं हो पाता। कभी ऊपर उठा भी तो पता चलता है कि उसने एक की चमचागीरी छोड़कर किसी दूसरे की चमचागीरी शुरू कर दी। चमचागीरी उसकी जरूरत, उसकी मजबूरी बन जाती है। वह लाख काम का आदमी है, लाख हुनरमंद है, लाख जौहर वाला है, पर वह चमचा है। यह व्यक्तित्व विकास के लिए सक्रिय व्यक्ति के लिए खतरनाक है। इसे समझना और इससे बचना जरूरी है। है कि नहीं? फिलहाल इतना ही।

व्यक्तित्व विकास पर अभी चर्चा जारी रहेगी। अगली पोस्ट में पढ़िए – आप क्यों नहीं करते इंतजार?

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