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सच पूछिए, यदि किसी को यह पता चल गया कि वह हीन भावना से ग्रसित हो चुका है या हो रहा है तो समझिए उसकी बीमारी का आधा इलाज हो गया। जिस दुश्मन को आप ठीक से समझ गए, समझिए उसकी आधी ताकत आपके पास आ गई। जब तक दुश्मन के पैंतरों से आप अनजान रहते हैं, तभी तक वह आपके लिए खतरनाक रहता है। हीन भावना दरअसल तुलनात्मक अवस्था है, जहां व्यक्ति दूसरे के सापेक्ष खुद का आकलन करने लगता है। निश्चित रूप से यह खतरनाक स्थिति है, क्योंकि कभी कोई किसी के जैसा नहीं हो सकता है। गांधी के चेले भले बहुत पैदा हो गए, पर दूसरा गांधी फिर नहीं हुआ। दुनिया का हर व्यक्ति विशिष्ट है, अनूठा है। आप में अनूठा क्या है, आप में विशिष्ट क्या है, इसे खोजें और उसके तराशने में लग जाएं। एक बार यह आदत पड़ गई तो आप इतना व्यस्त हो जाएंगे कि हीन भावना क्या होती है, इसका अहसास भी आपसे बहुत दूर हो जाएगा।
होता यह है कि आदमी पैदा होने के बाद से ही सिर्फ और सिर्फ दूसरे की बातों पर अमल करने और उसी की चिंता में रात-दिन बिताने की जिन आदतों में पड़ता है, सो पड़ा ही रहता है। आदमी को कभी खुद की ओर ध्यान देने का न तो वक्त मिल पाता है, न वह इसके लिए कोई प्रयास करता है। खुद की पुकार वह नहीं सुन पाता। उसका मन आइसक्रीम खाने को हो रहा है, पाकेट में पैसे भी हैं, पर खा नहीं रहा। क्यों? क्योंकि दफ्तर का डिकोरम इजाजत नहीं देता, बीवी रोक रही है। बड़ा अजीब लगता है, पर सच है। तो ऐसी ही छोटी -छोटी खुद की बातों को जब व्यक्ति सुनने का प्रयास शुरू कर दे तो हो सकता है कि उसका मिजाज बदले। हो सकता है कि वह खुश रहने लगे।
कुरुक्षेत्र में दिनकर लिखते हैं कि “ब्रह्मा से कुछ लिखा भाग्य में मनुज नहीं लाया है, अपना सुख उसने अपने भुजबल से ही पाया है” । दरअसल, हीन भावना का सही व्यावहारिक अर्थ खुद पर से विश्वास का कम हो जाना ही तो है। तो इससे पार पाने के लिए सबसे पहला जो उपाय है, वह यह है कि व्यक्ति खुद पर विश्वास करना शुरू करे। यानी आत्मविश्वास। फैसला लेने से पहले चार बार सोचें, पर यदि एक बार फैसला ले लें तो फिर किसी की टीका-टिप्पणी या थोड़े लाभ-हानि के चलते उसे न बदलें। ऐसी आदत डल गयी तो आप सही निर्णय लेने की कला तो सीख ही जाएंगे, लोगों में भी आपकी स्वीकार्यता बढ़ने लगेगी, बढ़ जाएगी। हीन भावना कहां गायब हो जाएगी, आपको पता भी नहीं चलेगा।
हीन भावना के पनपने के लिए प्राथमिक स्तर पर कारण के रूप में परिवेश का जिक्र किया गया था। परिवेश का मतलब वैसा माहौल जहां एक दूसरे को नीचा दिखाने वाले लोगों की जमात हो और आप उसमें फंसकर हीन भावना के शिकार हो रहे हों। दरअसल, बेवकूफों की जमात में बुद्धिमान बेवकूफ बन ही जाता है। ऐसे में जमात बदलने की जरूरत होती है, न कि उस जमात में रहकर घुट-घुट कर सांसें लेने व हलकान होते रहने की। एक व्यक्ति चाह ले, ठान ले तो पूरा माहौल, पूरा परिवेश बदल सकता है। ऐसे लोगों के उदाहरणों से इतिहास भरा-पड़ा है, पर यह लंबे समय के लिए जुझारू रणनीति पर काम करने से ही संभव है या फिर धैर्य की लंबी परीक्षा से गुजरने वाली बात है। जो लोग माहौल नहीं बदल पाते और खुद को हीन भावना से ग्रसित मानकर उपाय खोजते रहते हैं, वे दरअसल सिकनेस के शिकार होते हैं। होम सिकनेस, सिटी सिकनेस, इनवायरनमेंट सिकनेस। विकास के लिए व्यक्ति को इन सिकनेस से दूर रहना चाहिए। अच्छा भला आदमी होम सिकनेस के फेरे में खुद को बर्बाद कर लेता है। बर्बादी इंफीरियरिटी कांप्लेक्स की ही ओर तो ले जाती है।
दरअसल, पूरा मामला व्यक्ति की क्षमताओं पर डिपेंड करता है। क्षमतावान व्यक्ति पहाड़ों से चट्टानों को तोड़कर रास्ता बना लेता है। ऐसा कर वह दूसरों के लिए भी मार्ग आसान बनाता है। आपको जब कभी ऐसा लगता हो कि आप हीन भावना के शिकार हो रहे हों या हो गए हों तो अपनी क्षमताओं को बढ़ाने की दिशा में सचेष्ट हो जाइए। आप जिस फील्ड में हैं, वहीं अपने ज्ञान को बढ़ाने में, क्षमताओं को विकसित करने में तल्लीन हो जाइए। आप वैसे लोगों के संपर्क से धीरे-धीरे किनाराकशी कर लीजिए, जो आपकी बातें नहीं सुनते, आपका उपहास उड़ाते हैं, आपका सम्मान नहीं करते। आप प्रतिभावान नए दोस्तों की श्रृंखला तैयार कीजिए। उनसे अपनी समस्याएं डिस्कस कीजिए, अनुभव बांटिए और भविष्य की कार्ययोजना पर बहस कीजिए। आप देखेंगे, ज्यों-ज्यों आपकी क्षमताओं का विकास होता जाएगा, हीन भावना गायब होती जाएगी। फिलहाल इतना ही। “हीन भावना से कैसे उबरें” के तहत जवाबों की तलाश में व्यक्तित्व विकास पर चर्चा अभी जारी रहेगी। कीजिए अगली पोस्ट का इंतजार।
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