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हीन भावना से उबरने की चर्चा में एक अहमतरीन बात जो कहना चाहूंगा, वह यह कि वह भी क्या आदमी है जो आदमी को देखकर हीन भावना से ग्रसित हो जाए। सोचिए, कितनी बेवकूफी की बात है कि कोई कार में बैठकर सर्र से बगल से निकल गया और कोई हीन भावना से ग्रसित हो गया। किसी ने कीमती शर्ट पहन ली और कोई हीन भावना से ग्रसित हो गया। किसी को दो चार लोगों ने सलाम ठोक दिया और उसे देखकर कोई हीन भावना से ग्रसित हो गया। किसी का साथी प्रोन्नति पा गया और प्रोन्नति न पाने वाला साथी हीन भावना से ग्रसित हो गया। यह बिल्कुल बेवकूफी की बातें हैं। पूरा मामला ही मानसिक असंतुलन का है। यह बिल्कुल व्यक्ति की सोचों पर डिपेंड करता है कि वह किन परिस्थितियों में हीन भावना से ग्रसित हो और किन परिस्थितियों में नहीं हो। हीन भावना जैसी कोई चीज होती ही नहीं, होनी ही नहीं चाहिए।
इसके लिए मेरी छोटी समझ में जो बातें आती हैं, उन्हें यहां रखना चाहता हूं। जरा इस पर विचार कीजिए कि इंसानों के इस जंगल में एक इंसान का शक्ल तक दूसरे से नहीं मिलता तो एक इंसान की फितरत, सोचें, उसके मिजाज कैसे दूसरे से मेल खाएंगे? हर व्यक्ति का अलग वजूद है, अलग अहमियत है, अलग खासियत है, अलग गुण है। गांधी गांधी हैं, नेहरू नेहरू। उनकी पहचान और महत्ता तक अलग-अलग परिभाषित है। न्यूटन भी आदमी थे और आइंस्टीन भी। बुद्ध और महावीर के बारे में सोचिए। इन सभी ने एक दूसरे के जैसा क्या कभी होने की कोशिश की? अगर एक दूसरे के जैसा होने की उन्होंने कोशिश की होती तो क्या जमाना उन्हें उस रूप में याद करता, जिस रूप में वे आज याद किए जाते हैं? सब गड्ड-मड्ड हो गया होता न?
मेरा मानना है कि दूसरों को देखकर हीन भावना से ग्रसित होने के बजाय आप खुद को देखने की कोशिश शुरू कीजिए। अपनी खासियत, अपनी सलाहियत और अपने वजूद को परिभाषित करने की दिशा में आप जितना सचेष्ट होंगे, उतना ही हीन भावनाओं के घेऱे से दूर निकलते जाएंगे। इतना ही नहीं, आप उनके लिए भी प्रेरणादायक बन जाएंगे, जिन्हें देखकर और कोसकर आप हीन भावना के शिकार होते हैं। याद रखिए, जिंदगी कभी तुलनाओं में अपना रास्ता नहीं तलाशती। जिंदगी का मुकाम मेहनतों और कोशिशों पर टिका होता है। जैसा कर्म करेगा वैसा फल देगा भगवान। यह कहावत भी आपने सुनी होगी, जिन ढूंढ़ा तिन पाइयां गहरे पानी पैठ।
ख्याल रखिए, मेहनत से जी चुराने वाले ही हीन भावना से ग्रसित हो सकते हैं। जिन्होंने मेहनत करने की ठान ली, वे जय-पराजय की बात करते हैं। जीते तो जश्न मनाते हैं, हारे तो अगली लड़ाई की तैयारी करते हैं। एक बात जेहन में बिठा लीजिए, हारने का मतलब हीन भावना से ग्रसित होना नहीं होता। हारने का मतलब होता है, जीत की तैयारी। और यहां एक दिलचस्प बात कहना चाहूंगा-विश्व भर में या तो युद्ध चलता है या युद्ध की तैयारी चलती है। तैयारी का क्षण कोई हीन भावना से ग्रसित होने के रूप में बिताना या मनाना चाहे तो उसे आप क्या कहेंगे? मैं तो उसे बेवकूफ ही कहूंगा।
फिलहाल इतना ही। मुझे लगता है, हीन भावना से उबरने की दिशा में सूत्र तलाशते पांच आलेखों में बहुत कुछ उपाय निकल आए हैं। अगले आलेख में इसका समअप करूंगा। व्यक्तित्व विकास पर चर्चा जारी रहेगी। हीन भावना से उबरने के उपायों के बाद का चैप्टर होगा – भविष्य कैसे सुधरे, कैसे सुधारें। तैयार रहिए बातें सीरीज में होंगी और मेरा वादा है, अनूठी होंगी।
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