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कुछ ऐसा भी है भविष्य का मैकेनिज्म

गोल से पहले
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आदमी अनाम और शिशु के स्वरूप में जन्म लेता है। शिशु का भविष्य क्या है? उसका नामकरण, उसका लालन-पालन। फिर भविष्य क्या है? उसका सही तरीके से पठन-पाठन। फिर क्या है? उसका रोजी-रोजगार। फिर क्या? शादी-विवाह। फिर? बाल-बच्चे। फिर? अपने बच्चों का पालन-पोषण। फिर? उसकी पढ़ाई – लिखाई, शादी-ब्याह। फिर? बुढापा, उपेक्षा, अकेलापन। फिर? उदासी। फिर? जीवन की ईहलीला समाप्त। इतना भी तब, जब कहने -सुनने की बात तक ही सब सीमित हो। झटके बीच में कई हैं। बीमारी, दुर्घटना, प्राकृतिक प्रकोप। एक बच्चा जन्म लेता है और जन्मते ही खत्म हो जाता है। जीवन के किसी मोड़ पर आगे के जीवन का कोई संज्ञान नहीं होता। कहते हैं न, पल का पता नहीं और सामान सौ साल का। आदमी पल बीतने के साथ ही क्या से क्या हो जाता है, कहां से कहां पहुंच जाता है, यह तो हम सभी जानते हैं। हम यह भी जानते हैं कि कुछ हासिल करना हो तो उसके लिए छोटे-छोटे एजेंडे तय करने पड़ते हैं और उस पर कड़ी मेहनत से काम करना होता है। सफलता फिर भी हाथों नहीं होती। मैन प्रोपेजेज गाड डिस्पोजेज का संज्ञान हो तो इसे ठीक से समझा जा सकता है। भविष्य गुजरते दिन के साथ गुजरता जाता है, खासकर इसलिए कि हर दिन नया होता है, हर दिन का अपना एजेंडा होता है। उसका भविष्य भी उसी के साथ चलता है और उसके गुजरते उसका भविष्य भी गुजर जाता है। नए दिन की शुरुआत भविष्य से करनी ठीक होगी क्या? अभी तो उसका वर्तमान ही चालू होता है और कोई उसे भविष्य माने बैठा है। मुझे लगता है, गड़बड़ी यहीं होती है। हमारे गांव में एक देहाती लोकोक्ति है- बाबा मरीहें त बैल बिकाई। मतलब- बाबा मरेंगे तो बैल बिकेगा। मजाक की यह लोकोक्ति वर्तमान को फोकस करती है और वर्तमान को संवारने का संकल्प लेने को उत्सुक करती है। क्यों? क्योंकि वर्तमान ही भूत होने वाला है, भविष्य का निर्धारण भी यही करता है।

और भविष्य की चिंता का आलम देखिए। लोग चिंता करते हैं और चिंताओं में खुद को घुला डालते हैं। हड्डी निकल आती है, पीले पड़ जाते हैं। मेरे एक कनिष्ठ सहकर्मी की चर्चा करना चाहूंगा। संपादक से उनकी नहीं बन रही थी। बड़े परेशान थे। चुपचाप सुनते थे और घुलते थे। मेरी एक आदत है। फ्रेंड सर्कल में जब भी मैं किसी से मिलता हूं तो यह जरूर पूछता हूं कि क्या हाल है भई, कोई दिक्कत तो नहीं? सच मानिए, कोई दिक्कत तो नहीं मैं यूं ही नहीं पूछता। इस सवाल से लोग अपनी दिक्कतें शेयर करने लगते हैं और कभी किसी के काम आने का मौका मिल जाता है। मैंने महसूस किया है, कोई मनपसंद खाना खाकर, किसी अच्छी जगह सैर कर या फिर कोई नौकरी, कोई पदोन्नति पाकर मुझे कभी उतनी खुशी नहीं हुई, जितनी कभी किसी के काम आने वाला काम करके हुई। तो एक दिन उस साथी से भी इसी अंदाज में मैंने पूछ डाला। और बस, वे लगे बताने। उनके कहने का कुल मतलब इतना ही था कि वे संपादक के आदेश दर आदेश से दबे हुए थे। खुद की स्टेमिना कम थी और नुक्स निकल आने के बाद नौकरी से निकाल दिए जाने का भय सता रहा था। वे फफक रहे थे कि मेरा तो भविष्य चौपट हो गया। मैं क्या करूं? मेरी समझ में इतनी ही बात आई कि साथी को अपनी समग्र चिंताओं के साथ एक बार संपादक से बात करनी चाहिए। इस प्रस्ताव को मानने को वे कतई तैयार नहीं थे। खतरा और बढ़ जाने का खतरा था। फिर मैंने उन्हें कुछ यूं समझाया।

खतरा क्या है? कितनी तनख्वाह है आपकी? पांच-सात -दस हजार? साथी तब सात हजार रुपये प्रति महीने पर नियुक्त थे। मैंने कहा- आज महीने की दस तारीख है। आप तनख्वाह ले चुके हैं। अब यह सात हजार रुपये आपको अगले महीने की सात तारीख को ही मिल पाएंगे। आपके पास आज से कम से कम २७-२८ दिनों का समय है। है कि नही? उन्होंने घुंडी घुमायी, कहा-हां। उनसे मैंने फिर कहा, आप अभी जाकर संपादक से बात करें। अपनी बातों को रखें और यह मानकर रखें कि आज से आपकी नौकरी खत्म। नौकरी खत्म होने से क्या होगा? आपको सात हजार रुपये प्रति महीने मिलने बंद हो जाएंगे। यह भी सात हजार रुपये आप एक महीने बाद ही उठा पाएंगे। और मान लेते हैं कि आज नौकरी चली गई और कम से कम तीन महीने बाद तक आप बेरोजगार ही रहेंगे। तो यदि नौकरी रहती तो इस बीच आप कितनी रकम बना पाते, इक्कीस हजार। इक्कीस हजार का आज इंतजाम करते हैं। हित-मित्र, नाते-रिश्तेदार आदि से। हो पाएगा कि नहीं इतनी रकम का इंतजाम? उन्होंने कहा-हां। तो इंतजाम करते हैं और तीन महीने के लिए निश्चिंत। और इस दौरान क्या सात हजार रुपये की नौकरी आप नहीं खोज पाएंगे। यदि नहीं खोज पाएंगे तो मान लीजिए कि आप दीन-हीन , लाचार और बेबस इंसान हैं। तब तो फिर कोई चिंता नहीं, फिर कोई बात नहीं। और यदि हिम्मत हो, खुद पर भरोसा हो तो निदान इतना ही है कि भविष्य की चिंता छोड़िए, फिक्र वर्तमान की कीजिए, इंतजाम वर्तमान का कीजिए। क्योंकि इसी वर्तमान के साथ आपका भविष्य भी गुजरने वाला है। बात उनकी समझ में आयी।

पहला असर तो यह देखा कि चेहरे से तनाव खत्म हो गया था। फिर बोले-आपने तो आंखें खोल दीं। आज वे विपरीत परिस्थितियों में भी काफी सुकून में दिखते हैं। संपादक से तो उन्होंने बात नहीं की। दरअसल, उन्होंने खुद को ही थोड़ा अरेंज कर लिया, भविष्य की चिंता छोड़ वर्तमान पर ज्यादा ध्यान देने लगे और नतीजा-वर्तमान ठीक। वर्तमान ठीक तो भविष्य भी ठीक। और चिंता? अब तो वे भी कहने लगे हैं कि अब चिंता काहे की??

फिलहाल इतना ही। भविष्य को लेकर बातों का जो सिलसिला शुरू हुआ है, वह अभी जारी रहेगा। व्यक्तित्व विकास के लिए सतर्क व्यक्ति इंतजार करें अगली पोस्ट का।

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