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एक सीन की कल्पना कीजिए, हो सकता है यह सीन आपको किसी हकीकत में डूबा डाले। पड़ोस का कोई दबंग है या किसी आफिस का कोई बास है। अब किसी सामान्य व्यक्ति या आफिस के किसी सामान्य कर्मचारी का मिजाज देखिए। दबंग व्यक्ति या बास से दूर, जब वह अपने कुनबे में अंटागाफिल होता है तो क्या बोलता है, क्या करता है? आज मिला था वह। कुनबे की आवाज – अच्छा। वह बोलता है – हां। फिर क्या हुआ? हुआ क्या, कुछ बोलना चाह रहा था, मगर मैंने भी साफ – साफ कह दिया कि अब बस। अच्छा ऐसा बोल दिया? हां भई, बोल दिया और जानते हो मेरे बोलते ही उसे सन्नाटा मार गया, बिल्कुल चुप हो गया। अच्छा तो तूने कमाल ही कर दिया। और इतना सुनते वह सामान्य आदमी या सामान्य कर्मचारी न जाने कहां से कहां पहुंच जाता है। ख्यालों में ही सही। उसका सीना तो देखिए, गर्व से कितना चौड़ा हो गया है। मगर यह तब की बात है, जब वह दबंग व्यक्ति या बास मौके पर नहीं होता।
अब देखिए बास या दबंग व्यक्ति को इस डायलागबाजी के बारे में पता चल गया है। फिर क्या होगा सीन? नहीं सर, नहीं भैया, आपको गलत मालूम है, ऐसा मैं बोल सकता हूं? और वह भी आपके खिलाफ? नहीं, कतई नहीं, लोगों का क्या है, बोलते रहते हैं, बोलते रहते हैं। जी, बिल्कुल, जी, जी, सही कहा आपने, यही सही है जो आप कह रहे हैं, नहीं, मैं वादा करता हूं, कभी नहीं, कभी नहीं मैं ऐसा करूंगा।
क्या है ये? ये है बतोलाबाजी। इससे हमेशा नुकसान की स्थितियां बनती हैं। कैसे? जब कभी बास के सामने किसी को प्रमोशन देने की नौबत आई, इंक्रीमेंट की घड़ी आई तो बतोलेबाज पीछे छूट सकता है। दबंग के सामने कभी मौका आया तो निकाल लेगा खुन्नस और बतोलेबाज समझ भी नहीं पाता कि क्या हुआ, कैसे हुआ, क्योंकि वह तो अंटागाफिल होता है। हकीकत और उसके फसाने से वह दूर, काफी दूर होता है। हकीकत और उसके फसाने से तालमेल बना रहे, इसके लिए जरूरी है कि बतोलेबाजी से बिल्कुल दूर रहें। बतोलेबाजी से ही नहीं, बतोलेबाजों से भी दूर रहें। क्योंकि अंग्रेजी वाला सफर सिर्फ बतोलेबाज ही नहीं करते, इसकी यात्रा का मजा कुनबे भी चखते हैं। जी हां, पूरा का पूरा ग्रुप होता है इफेक्टेड।
बतोलेबाजी का जन्म आखिर होता है कैसे और किन परिस्थितियों में, यह बहुत ही गौर करने की बात है। यह एक प्रकार का ह्यूमन साइको स्टेटस है। सुपरमेसी वाला साइको स्टेटस। अमूमन लोगों की भावनाएं होती हैं खुद को ऊपर दिखाने की, खुद को आगे दिखाने की। मगर, मिजाज आरामपसंदगी का कायल होता है। कुछ करने या कुछ कर दिखाने की जहमत कौन उठाए, चलो कुछ हांक कर ही अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं। इसका मजा भी आता है। तत्काल रिस्पांस मिलता है, तत्काल वाहवाही मिलती है। सिलसिले में कोई बाधा नहीं आई तो यह आदत रोजाना की रूटीन में शामिल होती है, फिर पूरी दिनचर्या ही बतोलेबाजी की होती है। इस बीच यदि जरूरी काम भी निपटाने के लिए कह दिया गया तो बतोलेबाज परेशान हो उठते हैं। पहला इसलिए कि काम की आदत छूट चुकी होती है, दूसरा यह परेशान करने वाली, आराम में खलल डालने वाली हरकत लगने लगती है।
अब कोई बताए, जिसे अपना भविष्य संवारने की चिंता होगी, वह क्या इन प्रक्रियाओं को अपनाना चाहेगा? वह क्या बतोलाबाज बनना चाहेगा? बतोलाबाज बनकर या बतोलेबाजी में शामिल होकर अपने मूल काम से अपना ध्यान हटाना चाहेगा? मूल काम से ध्यान हटाकर अपना नुकसान कराना चाहेगा? नहीं न? तो मान ही लीजिए कि बतोलेबाजी नहीं करनी है। बतोलेबाज से दूर रहना है।
फिलहाल इतना ही। भविष्य संवारने का टिप्स तलाशती रपटों का सिलसिला अभी जारी रहेगा। धन्यवाद। अगली पोस्ट में पढ़िए – ढलता सूरज धीरे-धीरे ढलता है ढल जाएगा।
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