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ढलता सूरज धीरे-धीरे उगता है, उग आएगा

गोल से पहले
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व्यक्तित्व विकास पर चल रही सीरीज का यह पचासवां आलेख है और यह मेरे लिए हैरत की बात है कि मैं एक आइटम पर इतना लिख गया! पर, लिख गया तो लिख गया। हाफ सेंचुरी। मैं इजाजत चाहता हूं कि थोड़ी देर के लिए मैं खुश हो लूं। पचासवें आलेख की भूमिका उनचासवें आलेख में ही तैयार हो गई थी। सो पेश है, ढलता सूरज धीरे-धीरे उगता है, उग आएगा का विस्तृत मसौदा। मैं कहना चाहूंगा कि जो भविष्य की संभावनाएं तलाश रहे हैं, उन्हें इस बात पर भी भरोसा करना सीखना होगा। जिस तरह यह सत्य है कि ढलता सूरज धीरे-धीरे ढलता है, ढल जाएगा, ठीक उसी तरह यह भी सत्य है कि ढलता सूरज धीरे-धीरे उगता है, उग आएगा। यह जीवन का यथार्थ है। जो ढलता है, वह उगता है। जो उगता है, वह ढलता है। प्रकृति कहीं विराम नहीं लेती। चलती रहती है, चलती रहती है। एक संपूर्ण साइकिल में रोटेट करती है और रोटेशन पूरा करती है।

जीवन भी कहीं रुकता है क्या? यह बड़ा सवाल है। इसे समझने की जरूरत है। जीवन नहीं रुकता है। सांसें चलती हैं तो उम्र भी बढ़ती है। इसी के साथ दरमियां बढ़ती हैं, घटती हैं। कभी-कभी तो बढ़ी दूरियां सिमट जाती हैं, खत्म हो जाती हैं। कभी-कभी सिमटी दूरियां बढ़ जाती हैं, यादों के फलक से भी दूर चली जाती हैं। और ध्यान रहे, जहां सब कुछ खत्म हो जाए, जहां हाथों में समेटने लायक भी कुछ न बचे, वहां भी सफर रुकता नहीं है। सफर वहां से भी शुरू होता है। शुरू करना ही पड़ता है। करना पड़ता है कि नहीं?

भविष्य सुधरता है, संवरता है, यदि एक काम आपकी आदत में शुमार हो जाए। बस, गलतियों से सबक लेना शुरू कर दीजिए। मिसालें भरी पड़ी हैं। जिन्होंने अपनी गलतियों से सबक लिया, वह चमक उठे। उनकी पर्सनालिटी दूसरों के लिए प्रेरणादायी बन गई। वे सहज ही सम्मान के भागी हो गए। दूसरी बात, आप परनिंदा से खुद को दूर कर लीजिए। दूसरों की बुराई से कुछ हासिल नहीं होता, अपनी तस्वीर खराब होती है, माहौल बिगड़ता है, असर सिर्फ आप पर पड़ता है।

एक लैंप है, उससे रोशनी मिल रही है। आपको चाहिए था कि उसके प्रकाश से अपना काम चलाते, उसकी रोशनी में आगे बढ़ते। पर, आपने क्या किया? आपने उसके शीशे को छू लिया और अपना हाथ जला बैठे। अब शीशा फूट गया, रोशनी बुझ गई, हाथ जला पड़ा है अलग से। अधिकतर लोग यही कर रहे हैं। आप भी यदि यही कर रहे हों तो इसे बंद कीजिए। यह बंद हो जाएगा, लेकिन तब तक नहीं होगा, जब तक आप गलतियों से सबक लेना शुरू नहीं करेंगे।

गलतियों से सबक लेना शुरू करने से पहले यह जरूरी होगा कि आप मान लें कि आप भी गलतियां करते हैं। बहुत लोग तो मानते ही नहीं कि वे गलतियां भी करते हैं। इसके लिए आपको अपने कार्यों का डेली बेसिस पर मूल्यांकन करना होगा। आपको देखना होगा कि आज आपने क्या क्या किया है और आपको क्या क्या करना चाहिए था। यह भी देखना होगा कि आपने आज जो किया, क्या वह आपको करना चाहिए था? यदि अंदर से आवाज आए नहीं तो कल से वह काम मत कीजिए। हो सके तो पहले किए गए काम के लिए माफी मांगने की कला भी विकसित कीजिए।

यानी गलतियों को स्वीकार कीजिए। गलतियों स्वीकार करने वाला आदमी महान हो जाता है। इसलिए कि सुधार की गुंजाइश उसी में होती है। जिसमें सुधार की गुंजाइश होती है, उसी पर लोग-बाग ध्यान देते हैं। आप भी ऐसा ही करते हैं। जिसमें आप सुधार की गुंजाइश नहीं देखते, उस पर ध्यान देते हैं क्या? नहीं न? तो फिर आप नहीं चाहेंगे कि लोग-बाग आपमें सुधार की गुंजाइश देखें और आप पर ध्यान दें? तो आखिर में फिर अपनी मूल बात दोहरा लूं। आप भी दोहराइए। ढलता सूरज धीरे-धीरे उगता है, उग जाएगा। व्यक्तित्व विकास के सिलसिले में भविष्य संवारने का टिप्स तलाशती चर्चाओं का सिलसिला अभी जारी रहेगा। धन्यवाद। अगली पोस्ट में पढ़िए – मेरी बीवी, मेरे बच्चे।

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