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शुक्रिया, शुक्रिया

गोल से पहले
गोल से पहले
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मजमून हालिया अयोध्या प्रकरण पर फैसले के बाद की स्थितियों का है। चाहे वह आजादी के बाद के हालात रहे हों, चाहे पाकिस्तान से लड़ाइयों का दौर, चाहे कारगिल…, देश व देशवासियों ने एकसूत्रता की हर दफे एक से बढ़कर एक मिसाल कायम की, राम-रहीम एक है की आवाज बुलंद की। पर, इस बार तो इस मिसाल की रोशन मीनार खड़ी कर दी है। पूज्य बापू की आत्मा प्रसन्न होगी। उनके अल्लाह-ईश्वर दोनों खुश होंगे। हिन्दू-मुसलमानों के बीच जो अमनो-अमान वे नजर करना चाहते थे, उसे देश साक्षात देख रहा है।

सरकारों ने देश के चप्पे-चप्पे पर फौजें खड़ी कर दीं, हर मोड़-हर राह पर संगीनें तान दीं, मगर क्या उसकी जरूरत थी? देश के लोगों ने साबित किया कि उन्हें इंसाफ में भरोसा है, उन्हें अमन में भरोसा है, उन्हें अल्लाह में भरोसा है, उन्हें ईश्वर में भरोसा है, उन्हें लोक में भरोसा है, उन्हें तंत्र में भरोसा है, उन्हें पूरे का पूरा लोकतंत्र में भरोसा है, उन्हें देश चाहिए, उन्हें एकता चाहिए, उन्हें अमन चाहिए, उन्हें चैन चाहिए।

मेरे जेहन में एक ही बात आई। यही है असली शुक्रिया अदा करने का वक्त। मगर, साथ ही सवाल जागा कि किसे शुक्रिया अदा करें? हिन्दुओं को? मुसलमानों को? सरकारों को? अपने आप को? आपको? किसे? अभी १५ अगस्त की शाम मुजफ्फरपुर में जानकी बल्लभ शास्त्री जी से मिलने चला गया था। शाम के धुंधलके में उनके कुछ अंतरंग बातें हुईं। लब्बोलुआब यह था कि आदमी क्या है? कब आया, कब चला जाएगा, कुछ पता है क्या? आदमी में कर्ताभाव ही आदमी को आदमियत से दूर करता है। जो हुआ, जो हो रहा है, जो होने वाला है, सब पर इस संसार की रचना करने वाले का नियंत्रण है। नियंत्रण ही था कि संगीनें तनी थीं, फौजें तनी थीं, मगर क्या सुहानी शाम थी, क्या सुहानी सुबह हुई?

यह इंसाफ था। साठ साल की लंबी जद्दोजहद के बाद का निकला इंसाफ। मानो कोई गिरगिट सा रंग बदलकर गुजर गया, कोई मेढ़क सा जमीन के नीचे उतर गया, जो काम इश्क न कर सका, मानो वह अश्क कर गया। तो बोलिए शुक्रिया, शुक्रिया। उस इंसाफ को, जिसने इंसानी जेहन को सुकून दिया। उस कवायद को, जिसे इतनी बड़ी मकबूलियत हासिल हुई। उस कायनात को, जिसने इसका सच्चे दिल से खैरमकदम किया। उस परम सत्ता को, जिसने शांति कबूल फरमाई। बोलिए शुक्रिया, शुक्रिया।

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