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एक हादसा कई सबक – ४
लंबे समय के बाद ‘एक हादसा कई सबक’ सीरीज को आगे बढ़ा रहा हूं। जिंदगी के जिस वकफे में इस सीरीज को शुरू किया था, वह दौर कुछ और था, वह जगह कोई और थी। अब जब इस सीरीज को आगे बढ़ाने के लिए बैठा हूं तो यह दौर भी कुछ और है, जगह भी कोई और है। इसी वकफे में देश का एक मशहूर शहर (गोरखपुर) मेरा एक साल एक महीना हजम कर चुका है और एक और नया शहर (बनारस) रफ्ता-रफ्ता मेरी जिंदगी की रफ्तार का गवाह बनता जा रहा है। भई वाह, कितने उतार-चढ़ाव, कितने घात-प्रतिघात, कितनी खुशी-कितना गम, कितना गुस्सा-कितना प्यार, कितने झंझावत-कितनी रस्साकशी…! जिंदगी के किसी भी मुकाम पर खड़े होकर जब जिंदगी में झांकिए तो सब हादसे की तरह ही तो दिखता है। यानी जिंदगी का गुजरा हर पल हादसा है?
एक लड़की, एक लड़का, दोनों की बाली उम्र। रिश्ता भी कुछ टेढ़ा-मेढ़ा। जब मिलते तो तसब्बुर में ही सारी रात गुजर जाती। जमाना क्या कहेगा की परवाह से मीलों दूर। अब लड़की की शादी हो गई। लड़का अब भी ख्वाब देखता है, सपने पालता है, सपने में शादीशुदा लड़की के साथ दुनियावी खेल खेलता है। शादी उसकी भी हो जाती है, पर अधूरे ख्वाब पीछा कहां छोड़ते। फिर, वक्त मौका देता है और लड़की के पति के ठिकाने पर दोनों की मुलाकात होती है। बेजोड़ स्वागत…। लड़का बड़े सपने लेकर लौटता है। उसे लगता है, खेल आसान हो सकता है। मगर, वक्त के झंझावात मौका कहां देते? फिर दुनियादारी जरूरतें, रिश्तों की गांठें। कुछ पेच और लड़का लड़की के फोन नंबर तक अपने मोबाइल से मिटा डालता है। अब उनकी बातें नहीं होतीं, मुलाकात भी होगी कि नहीं कौन जाने। हादसा ही तो है….।
मेरे एक मित्र हैं। नाम मत पूछिए। सक्रिय पत्रकारिता में हैं। यदि मेरी बातें उन्हें नागवार गुजरीं तो मुझे मालूम है, वे एनकाउंटर में एक नहीं, कई ब्लाग एक साथ शुरू करने का जोशोखरोश रखने वालों में से हैं। मैं शुरू से उन्हें उदासीन संप्रदाय का महंथ कहता रहा हूं। चूंकि वे मेरे अच्छे मित्रों में से एक हैं, इसलिए कभी उन्होंने मेरी बात का बुरा नहीं माना। हालांकि, ऐसा मैं मानता हूं। मुझे तो वे मेरी बात पर सदा मुस्कुराते ही दीखे। हां, इतना बताना चाहूंगा कि जब थोड़ा सा भी मौका मिला, उन्होंने मेरे चंगुल से निकलने में कोई कसर नहीं छोड़ी। आजकल तो फोन मैं करता हूं, काटते वे हैं। हादसा… शुरू से ही… बस मौका मिलने की बात थी। मेरे चंगुल में थे तो मुस्कुराते थे, चंगुल से निकले तो बात खत्म हुए बिना फोन काटने में संकोच नहीं करते। आप कुछ भी कहिए, मैं तो उनके साथ गुजरे हर लम्हे को हादसे की शक्ल में ही देखता हूं।
एक सीनियर की बातें कहूं। अभी सात साल पहले क्या वक्त था उनका! किसी राजधानी मुख्यालय के सेंटर टेबल के पीछे उनकी अकेली कुर्सी होती थी और दफ्तर में सबसे बड़ा कंप्यूटर। फिर, एक ऐसा समय आया कि कुछ वक्फे के लिए उन्हें उस संस्थान का साथ छोड़ना पड़ गया। जरूरत थी, बगल के एक संस्थान में बड़ी मशक्कत के बाद वही पद, वही हैसियत हासिल कर पाए। पर आगे क्या होगा, न उन्हें पता, न किसी और को। थोड़े ही दिनों में फिर सड़क पर थे। बेरोजगारी की बात थी, रोजगार का सवाल था…सारी हैसियत, सारी बानगियां, सब काफूर। अब तो सिर्फ नौकरी चाहिए थी। जमाने वालों ने भी क्या मदद की। उसी संस्थान ने उन्हें नौकरी दे दी। पर, अब कहां वह कुर्सी, वह टेबल, वह कंप्यूटर…! सेंटर भी बदल गया था। अभी थोड़े दिन पहले जो कभी उनके सामने पूछ कर खड़ा होता था, आज उनका बॉस है… उन्हें नाम लेकर बुलाता है और वे जाते हैं और बॉस के सामने वाली कुर्सी पर कोमा की हालत में थपक कर बैठ जाते हैं। पूरी मीटिंग उनकी आवाज अब हां का दामन नहीं छोड़ पाती। हाय, हादसा…!
मुझे लगता है, आलेख के शीर्षक का सही अर्थ कुछ साफ हुआ होगा। और जो जरूरी बातें कहना चाहता हूं, उस पर जरा गौर फरमाइए। व्यकित्व विकास के लिए बड़ा जरूरी होगा। आपको जब शक होता है किसी रास्ते पर कि वहां हादसा हो सकता है तो आप क्या करते हैं? पहले ही संभल जाते हैं। संभल जाते हैं कि नहीं? और सच्चाई यह कहती है कि जिंदगी का हर पल ही हादसा है तो कितने संभलने की जरूरत है! बिना संभले क्या चल सकता है काम? मुझे तो लगता है नहीं, नहीं चल सकता। याद कीजिए – बिना विचारे जो करे, सो पाछे पछताए, काम बिगाड़े आपना, जग में होत हंसाय। जारी…
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