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जीत को ठानने का संदेश है हादसा

गोल से पहले
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एक हादसा कई सबक – ६

हादसे से सबक सीरीज का यह बड़े महत्व का पार्ट है। जरा गंभीरता से पढिएगा। यह बचपन से सुनने वाला वाक्य है। कभी माता-पिता, चाचा-चाची, भैया-भाभी से तो कभी गुरु-मित्र से तो कभी अनायास राह चलते… ठान लो तो जीत, मान लो तो हार। सभी कहते हैं पर बताते नहीं कि आखिर कैसे और कहां से ठान लें, कैसे नहीं मानें। मैं बताता हूं और यकीन मानिए आप मान जाएंगे। जी हां, वह हादसा ही है कि जो तेजी से कुछ ठानने का आसानी से सबक देता है।

एक कथा सुनाऊं, बात समझ में आएगी। वर्ष १९८८ की बात है। स्थान कांटी (मुजफ्फरपुर)। मैं स्नातक करने के बाद कोलकाता की एक कंपनी में लग गया था और वहीं नियुक्त था। कंपनी की ओर से एक फ्लैट दिया गया था, जिसमें हमारे जैसे और दो साथी व दो हेल्पर रहते थे। एक बुजुर्ग हेल्पर को हम मास्टर जी कहते थे। वे खाना भी बनाते थे। बड़े सुस्त, हर काम धीमी गति से करने वाले।

एक बार बैठ गए तो उठने में कम से कम तीन मिनट लगाते थे। पैदल चलते तो लगता मर रहे हैं। कोई काम बता दो तो ऐसा मुंह बनाते जैसे बड़ा जुल्म हो रहा हो। चाय की दुकान पकड़ लेते, कार्यस्थल का कोई कोना और बैठे घंटों बतियाते रहते। कोई नहीं हुआ तो अकेले भी। न्यूटन के पहले गति नियम का सचाई से पालन करते हुए। तब तक दूसरा काम उन्हें नहीं सूझता जब तक कोई बाह्य बल उन्हें ऐसा करने को मजबूर नहीं करता।

वे फ्लैट के दरवाजे के ग्रिल वाले हिस्से में सोया करते थे। हम भीतर कमरों में। ग्रिल के साथ लगे गेट के ताले की चाबी उन्हीं के पास रहती थी। उसे वे अपनी चारपाई से सटी खिड़की के बार्डर पर रखा करते। और ऐसे में एक दिन अलस्सुबह करीब ढाई-तीन बजे आ गया भूकंप।

भीतर कमरे से मैं चिल्लाया – क्या हो रहा है मास्टर जी। वे बोले, पता नहीं सर जी। तब तक मैं बाहर आ चुका था। मैंने कहा, भूकंप है। वे बोले, बाप रे बार…। और इतनी फुर्ती से वे चारपाई से उतरे, खड़े हुए कि लड़खड़ा कर गिरते-गिरते बचे। गौर कीजिएगा, फुर्ती से और फटाक से खड़े हुए। उनकी सारी सुस्ती गायब थी, सारी काहिली काफूर थी।

मैंने कहा, जल्दी गेट खोलिए। मगर यह क्या, चाबी पकड़ नहीं पा रहे थे, गिर गई। अंधेरा था। धरती कांप रही थी, घबराया तो मैं भी था। मैंने चाबी खोजी और तत्काल खोलने लगा। ताला खुला ही था और मैं ग्रिल के गेट का हैंडल सरका ही रहा था कि यह क्या, मुझे किसी ने मेरी बाहें पकड़कर जोर से पीछे खींचा और धकेल कर साइड कर दिया।यह मास्टर जी थे।

वाह रे मास्टर जी… मेरे देखते-देखते आनन-फानन हैंडल घुमाया, ग्रिल का गेट खोला और उर्र-फुर्र। मैं चिल्ला रहा था, आराम से मास्टर जी, आराम से, पर सुनता कौन है। बगल में ही एनएच-२८ है। मास्टरजी सड़क पर पहुंच कर खुद को सुरक्षित करने लेने वाले उस मोहल्ले के पहले शख्स थे।

कुछ समझा आपने? यह घटना क्या कहना चाहती है?? यह हादसा क्या सबक दे रहा है??? यह घटना बताती है कि मास्टर जी काहिल थे, सुस्त थे, आलसी थे। जिंदगी के किसी मुकाम पर इतना तेज चलने या इतनी फुर्ती दिखाने की तो उनसे उम्मीद की ही नहीं जा सकती थी। पर, भूकंप जैसे हादसे ने उन्हें आगे निकल कर सबसे पहले सड़क पर पहुंच जाने का सबक दिया और वे पहुंच गए। वे पहुंच गए, इसका मतलब सबसे आगे पहुंचने की उन्होंने ठानी और ठान ली तो पहुंच गए।

आप देखेंगे तो पाएंगे कि आप हमेशा कुछ करने की नहीं ठानते। नहीं ठानते तो हमेशा आपको जीत भी नहीं मिलती। लेकिन, जब कभी ठानते हैं, जीत मिलती है। और हार के लिए क्या ठानना? कि ठानना पड़ता है? हार के लिए तो बस मान लेना भर ही काफी है। आपने मान लिया और आप हार गए।

तो क्या अब यह स्पष्ट करने की जरूरत है कि हादसे का ही सबक है जो कहता है कि ठानो कुछ ठानो…। ठानोगे तभी मिलेगी जीत। हादसा हो गया और आपने कुछ ठानी नहीं तो इसे व्यक्तित्व का दोष मानिए, बड़ा दोष। हर हादसा सबक देता है, जरूरत है उस सबक को ग्रहण करने की।

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